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हम ने ख़ाक-ए-दर-ए-महबूब जो चेहरे पे मली | शाही शायरी
humne KHak-e-dar-e-mahbub jo chehre pe mali

ग़ज़ल

हम ने ख़ाक-ए-दर-ए-महबूब जो चेहरे पे मली

सबा जायसी

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हम ने ख़ाक-ए-दर-ए-महबूब जो चेहरे पे मली
क़िस्सा-ए-दर्द छिड़ा बात से फिर बात चली

किस तरह समझूँ मिरा इश्क़ है सरगर्म-ए-सफ़र
राह बेदार हुई है न कहीं शम्अ' जली

दिल को बहलाएँ कि क़दमों को सँभालें हम लोग
जब नए मोड़ पे पहुँचे हैं तो ये शाम ढली

ये मिरे नक़्श-ए-क़दम वक़्त से मिट सकते हैं
अपने सीने से लगाए है जिन्हें तेरी गली

हम ने हर तार-ए-गरेबाँ को बनाया दामन
तेरी यादों को लिए बाद-ए-बहारी जो चली

मुझ को इस बर्क़ से बस इतना ही शिकवा है 'सबा'
आशियाँ जल गया क्यूँ शाख़-ए-नशेमन न जली