हम ने दिल उस के तईं नज़्र गुज़ारा अपना
उस ने समझा न सर-ए-बज़्म इशारा अपना
क्या पुकारूँ कि सदा भी न वहाँ जाएगी
जाने किस देस गया यार वो प्यारा अपना
ले गया दूर उसे ख़्वाब-ए-अदम का अफ़्सूँ
नींद से फिर न उठा अंजुमन-आरा अपना
उम्र के साथ जुदा होते चले जाएँगे यार
कम नहीं होगा किसी तौर ख़सारा अपना
लौट कर आए तो बस्ती है न तालाब न बाग़
हम यहीं छोड़ गए थे वो नज़ारा अपना
शाम होते ही भटकते थे उसे देखने को
उसी तारीक गली में था सितारा अपना
ग़म हुए ऐसे कि आता ही नहीं कोई जवाब
नाम ले ले के बहुत हम ने पुकारा अपना
ये जो गलियाँ हैं मिरे शहर की हैं मेरी रफ़ीक़
उन्ही गलियों में बहुत वक़्त गुज़ारा अपना
हम वो बीमार-ए-अना हैं कि हुए जिस से ख़फ़ा
उस को चेहरा भी दिखाया न दोबारा अपना
बारहा पेश हुआ ख़िलअ'त-ए-शाही हम को
हम ने मल्बूस-ए-गदाई न उतारा अपना
क्या ख़बर बन गई किस तरह ग़ज़ल की सूरत
हम ने तो दर्द ही काग़ज़ पे उतारा अपना
या-अली कहने से हट जाते हैं रस्ते से पहाड़
इक यही नाम है मुश्किल में सहारा अपना
ग़ज़ल
हम ने दिल उस के तईं नज़्र गुज़ारा अपना
फ़रासत रिज़वी