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हम न वहशत के मारे मरते हैं | शाही शायरी
hum na wahshat ke mare marte hain

ग़ज़ल

हम न वहशत के मारे मरते हैं

मुंतज़िर लखनवी

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हम न वहशत के मारे मरते हैं
तेरी दहशत के मारे मरते हैं

मार मत बे-मुरव्वती से उन्हें
जो मुरव्वत के मारे मरते हैं

शिकवा क्या कीजे शाम-ए-ग़ुर्बत का
अपनी शामत के मारे मरते हैं

क्या रक़ीबों को मारिए वो आप
सब रक़ाबत के मारे मरते हैं

यार से दूर हैं वतन से जुदा
इस मुसीबत के मारे मरते हैं

सैकड़ों उस से हैंगे हम-आग़ोश
लाखों हसरत के मारे मरते हैं

कुछ हमारी न पूछिए साहब
हम तो ग़ैरत के मारे मरते हैं

है अजब ज़ीस्त 'मुंतज़िर' उन की
जो कि उल्फ़त के मारे मरते हैं