हम न निकहत हैं न गुल हैं जो महकते जावें
आग की तरह जिधर जावें दहकते जावें
ऐ ख़ुशा-मस्त कि ताबूत के आगे जिस के
आब-पाशी के बदल मय को छिड़कते जावें
जो कोई आवे है नज़दीक ही बैठे है तिरे
हम कहाँ तक तिरे पहलू से सरकते जावें
ग़ैर को राह हो घर में तिरे सुब्हान-अल्लाह
और हम दूर से दर को तिरे तकते जावें
वक़्त अब वो है कि इक एक 'हसन' हो के ब-तंग
सब्र-ओ-ताब ओ ख़िरद-ओ-होश खिसकते जावें
ग़ज़ल
हम न निकहत हैं न गुल हैं जो महकते जावें
मीर हसन