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हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन | शाही शायरी
hum na hote kaKH-e-musht-e-KHak hota ghaaliban

ग़ज़ल

हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन

राही फ़िदाई

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हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन
बे-समाअत नग़्मा-ए-लौलाक होता ग़ालिबन

आप ने अच्छा किया ततहीर-ए-ख़्वाहिश ही न की
वर्ना ज़मज़म चश्मा-ए-नापाक होता ग़ालिबन

आतिश-ए-कर्ब-ओ-बला ने होश के नाख़ुन लिए
जोश में सैल-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक होता ग़ालिबन

ख़ुद ही बातिल-साज़ ने हंगामा-आराई न की
ख़ुश-लिबास-ए-हक़ भी दामन-चाक होता ग़ालिबन

हादसों के ख़ौफ़ से एहसास की हद में न था
वर्ना नफ़्स-ए-मुतमइन सफ़्फ़ाक होता ग़ालिबन

सोच कर ही तो लगाया हाजिब-ए-शम्स-ओ-क़मर
ला-मकाँ पर क़ब्ज़ा-ए-इदराक होता ग़ालिबन

शो'लगी ने इस को 'राही' सद-शिकस्ता कर दिया
आइना दिल सूरत-ए-ज़ह्हाक होता ग़ालिबन