हम मूए फिरते हैं और ख़्वाहिश-ए-जाँ है उस को
अब तलक भी वही जीने का गुमाँ है उस को
ऐ दिल अफ़्सुर्दगी-ए-दाग़ से क्यूँ है तू मलूल
जो गुल इस बाग़ में आया है ख़िज़ाँ है उस को
क़िस्सा-ए-बरहना-पाई को मिरे ऐ मजनूँ
ख़ार से पूछ कि सब नोक-ए-ज़बाँ है उस को
आगे उस गुल के न मारा कभू ग़ुंचे ने तो दम
चाहे बुलबुल सो कहे ताब-ए-बयाँ है उस को
ऐ फ़लक बोझ दो आलम का तू 'क़ाएम' पे न डाल
अपनी हस्ती भी कुछ इन रोज़ों गराँ है उस को
कर के हे हे ऐ नम-ए-अश्क तू रोवे मुझ को
आज अगर सैल में ख़ूँ के न डुबोवे मुझ को
ख़ाक जूँ आइना मिलना मुझे रखता है शुगूँ
तीरा-तर हूँ मैं जो पानी से तो धोवे मुझ को
फ़ाएदा गुल का न मुझ से है न साए की उमीद
कह दो दहक़ाँ से कि बे-हूदा न बोवे मुझ को
गर्मी-ए-नाला से मैं आज जला जाता हूँ
को दम-ए-सर्द कि आ कर वो समोवे मुझ को
साथ है संग ओ शरर का ये कहो उस बुत से
क्या हो आग़ोश में गर ले के वो सोवे मुझ को
न मुलाक़ात न अशफ़ाक़ न वा'दा न पयाम
क्यूँकि तस्कीन तिरे हिज्र में होवे मुझ को
ख़ातम-ए-दस्त-ए-सुलैमाँ से हूँ 'क़ाएम' मैं अज़ीज़
सख़्त पछताए वो जो हाथ से खोवे मुझ को
ग़ज़ल
हम मूए फिरते हैं और ख़्वाहिश-ए-जाँ है उस को
क़ाएम चाँदपुरी