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हम मुसलसल इक बयाँ देते हुए | शाही शायरी
hum musalsal ek bayan dete hue

ग़ज़ल

हम मुसलसल इक बयाँ देते हुए

आलोक मिश्रा

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हम मुसलसल इक बयाँ देते हुए
थक चुके हैं इम्तिहाँ देते हुए

बे-ज़बाँ अल्फ़ाज़ काग़ज़ पर यहाँ
गूँगी यादों को ज़बाँ देते हुए

हो गए ग़र्क़ाब उस की आँख में
ख़्वाहिशों को हम मकाँ देते हुए

फिर उभर आया तिरी यादों का चाँद
उजला उजला सा धुआँ देते हुए

लुत्फ़ जलने का अलग है हिज्र में
ज़ख़्म मेरे इम्तिहाँ देते हुए

ला रहे हैं नींद के आग़ोश में
अश्क मुझ को थपकियाँ देते हुए

रो पड़ा था जाने क्यूँ वो डाकिया
आज मुझ को चिट्ठियाँ देते हुए

इक बला का शोर था आँखों में पर
कह न पाया कुछ वो जाँ देते हुए

फ़ासला इतना न रखना था ख़ुदा
इस ज़मीं को आसमाँ देते हुए