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हम मय-कशों के क़दमों पर अक्सर | शाही शायरी
hum mai-kashon ke qadmon par akasr

ग़ज़ल

हम मय-कशों के क़दमों पर अक्सर

रविश सिद्दीक़ी

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हम मय-कशों के क़दमों पर अक्सर
झुक झुक गए हैं मेहराब-ओ-मिम्बर

शरमाएगा अब ता-हश्र तूफ़ाँ
टूटी हुई इक कश्ती डुबो कर

अब शम-ए-हसरत लौ दे उठी है
ऐ सरसर-ए-ग़म दामन बचा कर

आशुफ़्तगी को नींद आ चली है
बरहम न हो वो ज़ुल्फ़-ए-मोअ'म्बर

क्या अब भी कोई फ़र्दा है बाक़ी
किस सोच में हो ऐ अहल-ए-महशर

क्या तंज़-ए-दौराँ क्या हूर-ए-ख़ूबाँ
दिल ही सितम-कश दिल ही सितमगर

चुप हैं 'रविश' अब अर्बाब-ए-दानिश
थे तंज़ क्या क्या अहल-ए-जुनूँ पर