हम मय-कशों के क़दमों पर अक्सर
झुक झुक गए हैं मेहराब-ओ-मिम्बर
शरमाएगा अब ता-हश्र तूफ़ाँ
टूटी हुई इक कश्ती डुबो कर
अब शम-ए-हसरत लौ दे उठी है
ऐ सरसर-ए-ग़म दामन बचा कर
आशुफ़्तगी को नींद आ चली है
बरहम न हो वो ज़ुल्फ़-ए-मोअ'म्बर
क्या अब भी कोई फ़र्दा है बाक़ी
किस सोच में हो ऐ अहल-ए-महशर
क्या तंज़-ए-दौराँ क्या हूर-ए-ख़ूबाँ
दिल ही सितम-कश दिल ही सितमगर
चुप हैं 'रविश' अब अर्बाब-ए-दानिश
थे तंज़ क्या क्या अहल-ए-जुनूँ पर
ग़ज़ल
हम मय-कशों के क़दमों पर अक्सर
रविश सिद्दीक़ी