हम लोग जो ख़ाक छानते हैं
मिट्टी से गुहर निकालते हैं
है शोला-ए-दीं कि शम्-ए-कुफ़्र
परवाने कहाँ ये जानते हैं
इस गुम्बद-ए-बे-सदा में हम लोग
अल्फ़ाज़ के बुत तराशते हैं
ऐ साया-ए-अब्र अब तो रुक जा
इक उम्र से धूप काटते हैं
ग़ज़ल
हम लोग जो ख़ाक छानते हैं
ज़ेहरा निगाह