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हम क्यूँ ये कहें कोई हमारा नहीं होता | शाही शायरी
hum kyun ye kahen koi hamara nahin hota

ग़ज़ल

हम क्यूँ ये कहें कोई हमारा नहीं होता

मुज़फ़्फ़र वारसी

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हम क्यूँ ये कहें कोई हमारा नहीं होता
मौजों के लिए कोई किनारा नहीं होता

दिल टूट भी जाए तो मोहब्बत नहीं मिटती
इस राह में लुट कर भी ख़सारा नहीं होता

सरमाया-ए-शब होते हैं यूँ तो सभी तारे
हर तारा मगर सुब्ह का तारा नहीं होता

अश्कों से कहीं मिटता है एहसास-ए-तलव्वुन
पानी में जो घुल जाए वो पारा नहीं होता

सोने की तराज़ू में मिरा दर्द न तौलो
इमदाद से ग़ैरत का गुज़ारा नहीं होता

तुम भी तो 'मुज़फ़्फ़र' की किसी बात पे बोलो
शाएर का ही लफ़्ज़ों पे इजारा नहीं होता