हम को तो बे-सवाल मिले बे-तलब मिले
हम वो नहीं हैं साक़ी कि जब माँगें तब मिले
फ़रियाद ही में अहद-ए-बहाराँ गुज़र गया
ऐसे खुले कि फिर न कभी लब से लब मिले
हम ये समझ रहे थे हमीं बद-नसीब हैं
देखा तो मय-कदे में बहुत तिश्ना-लब मिले
किस ने वफ़ा का हम को वफ़ा से दिया जवाब
इस रास्ते में लूटने वाले ही सब मिले
मिलते हैं सब किसी न किसी मुद्दआ' के साथ
अरमान ही रहा कि कोई बे-सबब मिले
रक्खा कहाँ है इश्क़ ने 'आजिज़' को होश में
मत छेड़ियो अगर कहीं वो बे-अदब मिले
ग़ज़ल
हम को तो बे-सवाल मिले बे-तलब मिले
कलीम आजिज़