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हम को शब-ए-विसाल भी रंज-ओ-मेहन हुआ | शाही शायरी
hum ko shab-e-visal bhi ranj-o-mehan hua

ग़ज़ल

हम को शब-ए-विसाल भी रंज-ओ-मेहन हुआ

निज़ाम रामपुरी

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हम को शब-ए-विसाल भी रंज-ओ-मेहन हुआ
क़िस्मत ख़िलाफ़-ए-तब्अ हुआ जो सुख़न हुआ

फिर आने की हवस में सहर किस ख़ुशी के साथ
हमराह-ए-नाला दर्द-ए-जिगर भी मअन हुआ

गर्दिश भी उस के कूचे में है और क़रार भी
क़िस्मत तो देखिए कि सफ़र में वतन हुआ

क़ातिल अदा-ए-शुक्र को या शिकवों के लिए
जो ज़ख़्म जिस्म पर हुआ गोया दहन हुआ

साबित-क़दम हुआ न रह-ए-इश्क़ में कोई
मजनूँ कोई हुआ तो कोई कोहकन हुआ

कुछ मुझ से शब को ग़ैर के इज़हार के लिए
ये इश्क़-बाज़ी की थी कि अपना ये फ़न हुआ

दुश्मन से और होतीं बहुत बातें प्यार की
शुक्र-ए-ख़ुदा ये है कि वो बुत कम-सुख़न हुआ

लब पर हँसी वो आई वो चीन-ए-जबीं गई
कहता तो हूँ ख़ता हुई दीवाना-पन हुआ

आईना देख देख के क्या देखते हो तुम
छूना भी याँ नसीब तुम्हारा बदन हुआ

अब बोसा देने में तुम्हें किस बात का है उज़्र
गाली के देने से हमें साबित दहन हुआ

हक़ बात तो ये है कि उसी बुत के वास्ते
ज़ाहिद कोई हुआ तो कोई बरहमन हुआ

तक़दीर की ये बात है अब क्या करे कोई
राज़ी हुए वो बोसे पे तो गुम दहन हुआ

फिर मेरे इज़्तिराब में क्यूँ शक है आप को
उल्फ़त का जब यक़ीं तुम्हें ऐ जान-ए-मन हुआ

लब तक न आया हर्फ़-ए-तमन्ना कभी 'निज़ाम'
गोया मिरा सुख़न भी तुम्हारा दहन हुआ