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हम को महरूम-ए-करम उस की जफ़ा ने रक्खा | शाही शायरी
hum ko mahrum-e-karam uski jafa ne rakkha

ग़ज़ल

हम को महरूम-ए-करम उस की जफ़ा ने रक्खा

ख़ार देहलवी

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हम को महरूम-ए-करम उस की जफ़ा ने रक्खा
ज़ीस्त से तंग किसी तंग क़बा ने रक्खा

सच तो ये है कि दुआ ने न दवा ने रक्खा
हम को ज़िंदा तिरे दामन की हवा ने रक्खा

हुस्न वाले तो बहुत और हैं दुनिया में मगर
उन को यकता-ए-ज़माँ उन की अदा ने रक्खा

हसरत-ए-दीद न शर्मिंदा-ए-तकमील हुई
तेरे जल्वों ने कहाँ होश ठिकाने रक्खा

ज़ुल्म चुप हो के सहें ऐसे तो मजबूर न थे
हम को लाचार मगर तेरी रज़ा ने रक्खा

राह-ए-उल्फ़त में बहुत आए मक़ाम-ए-लग़्ज़िश
शुक्र-सद-शुक्र भरम मेरा वफ़ा ने रक्खा

बस हमीं तक रहें महदूद जफ़ाएँ उन की
लुत्फ़ इतना तो रवा अहल-ए-जफ़ा ने रक्खा

रास्ता रोक लिया फ़र्त-ए-नज़ाकत ने कभी
पास आए तो उन्हें दूर हया ने रक्खा

कभी दामान-ओ-गिरेबाँ से उलझते रहे हाथ
दर्द-ए-दिल ने कभी मसरूफ़ दुआ ने रक्खा

याद आते रहे बे-तरह मोअत्तर गेसू
आज बेचैन बहुत बाद-ए-सबा ने रक्खा

'ख़ार' दुश्मन ने तो इल्ज़ाम तराशे क्या क्या
सुर्ख़-रू मुझ को मगर मेरी वफ़ा ने रक्खा