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हम को मा'लूम है बातों की सदाक़त तेरी | शाही शायरी
hum ko malum hai baaton ki sadaqat teri

ग़ज़ल

हम को मा'लूम है बातों की सदाक़त तेरी

अतहर नादिर

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हम को मा'लूम है बातों की सदाक़त तेरी
लोग क्या क्या नहीं करते हैं शिकायत तेरी

मल्का-ए-हुस्न नहीं फिर भी तू ऐ जान-ए-वफ़ा
अच्छी लगती है बहुत ही मुझे सूरत तेरी

कोई मुश्किल भी हो ख़ातिर में न लाते थे कभी
हौसला कितना बढ़ाती थी रिफ़ाक़त तेरी

तू ही बतला कि भला तुझ को भुलाएँ क्यूँ कर
सामने आँखों के आ जाती है सूरत तेरी

क्या कहें हम कि गुज़र जाती है दिल पर क्या क्या
याद आती है जो रह रह के इनायत तेरी

लोग क्या सादा हैं उम्मीद-ए-वफ़ा रखते हैं
जैसे मा'लूम नहीं उन को हक़ीक़त तेरी

अब कहाँ रहता है क्या करता है 'नादिर' मेरे
मुद्दतों बा'द नज़र आती है सूरत तेरी