हम को मा'लूम है बातों की सदाक़त तेरी
लोग क्या क्या नहीं करते हैं शिकायत तेरी
मल्का-ए-हुस्न नहीं फिर भी तू ऐ जान-ए-वफ़ा
अच्छी लगती है बहुत ही मुझे सूरत तेरी
कोई मुश्किल भी हो ख़ातिर में न लाते थे कभी
हौसला कितना बढ़ाती थी रिफ़ाक़त तेरी
तू ही बतला कि भला तुझ को भुलाएँ क्यूँ कर
सामने आँखों के आ जाती है सूरत तेरी
क्या कहें हम कि गुज़र जाती है दिल पर क्या क्या
याद आती है जो रह रह के इनायत तेरी
लोग क्या सादा हैं उम्मीद-ए-वफ़ा रखते हैं
जैसे मा'लूम नहीं उन को हक़ीक़त तेरी
अब कहाँ रहता है क्या करता है 'नादिर' मेरे
मुद्दतों बा'द नज़र आती है सूरत तेरी
ग़ज़ल
हम को मा'लूम है बातों की सदाक़त तेरी
अतहर नादिर