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हम को लुत्फ़ आता है अब फ़रेब खाने में | शाही शायरी
hum ko lutf aata hai ab fareb khane mein

ग़ज़ल

हम को लुत्फ़ आता है अब फ़रेब खाने में

आलम ख़ुर्शीद

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हम को लुत्फ़ आता है अब फ़रेब खाने में
आज़माएँ लोगों को ख़ूब आज़माने में

दो-घड़ी के साथी को हम-सफ़र समझते हैं
किस क़दर पुराने हैं हम नए ज़माने में

तेरे पास आने में आधी उम्र गुज़री है
आधी उम्र गुज़रेगी तुझ से ऊब जाने में

एहतियात रखने की कोई हद भी होती है
भेद हमीं ने खोले हैं भेद को छुपाने में

ज़िंदगी तमाशा है और इस तमाशे में
खेल हम बिगाड़ेंगे खेल को बनाने में