हम को हवस-ए-जल्वा-गाह-ए-तूर नहीं है
उस हुस्न की क्या क़द्र जो मस्तूर नहीं है
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
इस बात को जाने दो कि मशहूर नहीं है
काबे को चले जाएँ दर-ए-दोस्त से उठ कर
पर उस का सताना हमें मंज़ूर नहीं है
वो मेरी अयादत को ज़रूर आएँगी हमदम
कहते हैं कि मक्कार है रंजूर नहीं है
खिलने से भला उस के दुखे क्यूँ दिल-ए-बुलबुल
है ग़ुंचा-ए-गुल ज़ख़्म का अंगूर नहीं है
दावत से मुसख़्ख़र हो न ताअत से मयस्सर
हूँ जिस पे फ़िदा वो परी-ओ-हूर नहीं है
मुशरिक कहे आशिक़ को जो ले नाम ख़ुदा का
सच कहते हो उस शोख़ से कुछ दूर नहीं है
हो रात तो जीते रहें उम्मीद-ए-सहर पर
ये रोज़-ए-सियह ही शब-ए-दीजूर नहीं है
'नाज़िम' मैं पढ़ाता उसे 'ग़ालिब' के क़साएद
अफ़्सोस कि 'ख़ाक़ानी'-ए-मग़्फ़ूर नहीं है
ग़ज़ल
हम को हवस-ए-जल्वा-गाह-ए-तूर नहीं है
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम