हम को छेड़ा तो मचल जाएँगे अरमाँ की तरह
हम परेशाँ हैं तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की तरह
हर गली आई नज़र कूचा-ए-जानाँ की तरह
हम को दुनिया ये लगी शहर-ए-निगाराँ की तरह
कम न होगी ये ख़लिश दिल की किसी भी सूरत
दिल में सौ ग़म हैं मकीं ख़ार-ए-मुग़ीलाँ की तरह
लोग रुक रुक के चले जानिब-ए-मंज़िल लेकिन
हम रहे गर्म-ए-सफ़र गर्दिश-ए-दौराँ की तरह
अब तो हर शख़्स पे होता है गुमाँ क़ातिल का
कोई मिलता ही नहीं आदमी इंसाँ की तरह
हम ने बख़्शे हैं अंधेरों को उजाले लेकिन
हम ही बे-नूर रहे गोर-ए-ग़रीबाँ की तरह
हम 'कँवल' आप में रहते हैं मगर उस से अलग
हम तो गुलशन में भी रहते हैं बयाबाँ की तरह

ग़ज़ल
हम को छेड़ा तो मचल जाएँगे अरमाँ की तरह
डी. राज कँवल