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हम को आदत क़सम निभाने की | शाही शायरी
hum ko aadat qasam nibhane ki

ग़ज़ल

हम को आदत क़सम निभाने की

सीमा शर्मा सरहद

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हम को आदत क़सम निभाने की
उन की फ़ितरत है भूल जाने की

सर झुका कर मैं क्यूँ नहीं जीती
बस शिकायत यही ज़माने की

उस की शर्तों पे मुझ को है जीना
कैसी दीवानगी दिवाने की

उस को नफ़रत है या मोहब्बत है
फिर ज़रूरत है आज़माने की

बअ'द मरने के ले के जाऊँगी
आरज़ू अपने आशियाने की

मैं तो यूँ भी सुलग रही 'सरहद'
क्या पड़ी आग यूँ लगाने की