हम कि मजनूँ को दुआ कहते हैं
रू-ए-लैला को सबा कहते हैं
कितनी अफ़्सुर्दा है ये शाम-ए-बहार
जिस को हम ताज़ा हवा कहते हैं
अपनी आँखों में न जाने कब का
ख़्वाब है जिस को ख़ुदा कहते हैं
फूल में उस का लहू बहता है
चाँद को उस की क़बा कहते हैं
उन्ही ख़ूबाँ की हथेली पे रहो
इस लिए तुम को हिना कहते हैं
हम वो पाबंद-ए-वफ़ा हैं कि तुझे
अब भी बे-मेहर-ओ-वफ़ा कहते हैं
शेर कहते हैं ग़ज़ल के या'नी
ख़्वाब को ख़्वाब-नुमा कहते हैं
ग़ज़ल
हम कि मजनूँ को दुआ कहते हैं
क़मर जमील