हम ख़ुदाई का दावा तो करते नहीं
बंदगी पर भी पूरे उतरते नहीं
यूँ तो क़ाएम हैं ईमाँ पे अपने मगर
दिल के वहम-ओ-गुमाँ से मुकरते नहीं
जुज़्व-ए-हक़ हैं नहीं हम किसी के मुतीअ
ख़ुद पे नाज़ाँ हैं बातिल से डरते नहीं
अपनी ख़ुद-ए'तिमादी का आलम है ये
टूट जाने पे भी हम बिखरते नहीं
दिल में जब तक न हो इक कसक दर्द की
आदमिय्यत के जौहर निखरते नहीं
है न दुनिया ही अपनी न अपना ख़ुदा
बे-कसी के ये दिन अब गुज़रते नहीं
ग़ज़ल
हम ख़ुदाई का दावा तो करते नहीं
ख़्वाज़ा महमूदुल हसन