हम ख़ाक-ब-सर गर्द-ए-सफ़र ढूँड रहे हैं
और लोग समझते हैं कि घर ढूँड रहे हैं
दीवानों के मानिंद मरे शहर के सब लोग
दस्तार के क़ाबिल कोई सर ढूँड रहे हैं
अब शाम है तो शहर में गाँव के परिंदे
रहने के लिए कोई शजर ढूँड रहे हैं
जो दिल के निहाँ-ख़ानों में रहता है हमेशा
ये लोग उसे आज किधर ढूँड रहे हैं
गलियों में जो फिरते हैं ये मानूस से चेहरे
ढलती हुई तहज़ीब के घर ढूँड रहे हैं
अफ़्सुर्दा से चेहरों पे बड़ी देर से हम लोग
इक खोया हुआ दस्त-ए-हुनर ढूँड रहे हैं

ग़ज़ल
हम ख़ाक-ब-सर गर्द-ए-सफ़र ढूँड रहे हैं
इसहाक़ विरदग