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हम कब उस राह से गुज़रते हैं | शाही शायरी
hum kab us rah se guzarte hain

ग़ज़ल

हम कब उस राह से गुज़रते हैं

शकील ग्वालिआरी

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हम कब उस राह से गुज़रते हैं
अपनी आवारगी से डरते हैं

कश्तियाँ डूब भी तो सकती हैं
डूब कर भी तो पार उतरते हैं

तोड़ कर रिश्ता-ए-ख़ुलूस अहबाब
आँसुओं की तरह बिखरते हैं

अपने एहसास की कसौटी पर
हम भी पूरे कहाँ उतरते हैं

चाहे कैसा ही दौर आ जाए
अपने हालात कब सँवरते हैं

सतह पर हैं हुबाब के ख़ेमे
डूबने वाले कब उभरते हैं

एक हालत पे हम नहीं रहते
जम्अ होते हैं फिर बिखरते हैं

ज़िंदगी तेरे नाम कर दी थी
अब तिरा नाम ले के मरते हैं

रंज ओ राहत की कश्मकश में 'शकील'
उम्र के क़ाफ़िले गुज़रते हैं