हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाए हुए हैं
बे-वजह नहीं है कि जो शरमाए हुए हैं
थी जिन की तब ओ ताब से इस बज़्म की रौनक़
दीपक वो सर-ए-शाम ही कज्लाए हुए हैं
हर सम्त सियाही है घटा-टोप अंधेरा
क्या ज़ुल्फ़-ए-दोता आज वो बिखराए हुए हैं
हम ख़ूगर-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा आज हैं वर्ना
माज़ी में बहुत ठोकरें भी खाए हुए हैं
है बरबत-ए-दिल सख़्ती-ए-मिज़राब से लर्ज़ां
तल्ख़ी-ए-मोहब्बत का मज़ा पाए हुए हैं
ऐ दोस्त सुकूँ हम को मयस्सर नहीं होता
आशुफ़्तगी-ए-दहर से घबराए हुए हैं
ग़ज़ल
हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाए हुए हैं
शाकिर ख़लीक़