हम जो इंसाँ के ग़म उठाते हैं
ख़ूब को ख़ूब-तर बनाते हैं
ज़िंदगी ख़्वाब ही सही लेकिन
ख़्वाब ताबीर छोड़ जाते हैं
बे-हक़ीक़त मसर्रतों के लिए
ज़िंदगी भर फ़रेब खाते हैं
माँगते हैं दुआएँ जीने की
और जीना ही भूल जाते हैं
सोची-समझी वही तमन्नाएँ
रोज़ ख़ाके नए बनाते हैं
आप से याद आप की अच्छी
आप तो हम को भूल जाते हैं
कारवान-ए-हयात में ख़ुद को
हर क़दम अजनबी सा पाते हैं
जब भी बनता है कोई शीश-महल
कितने आईने टूट जाते हैं
ज़ेहन-ओ-दिल की रिक़ाबतें तौबा!
कैसे कैसे ख़याल आते हैं
दोस्ती क्या है ख़ुद-सताई है
सब 'मतीन' अपने काम आते हैं
ग़ज़ल
हम जो इंसाँ के ग़म उठाते हैं
मतीन नियाज़ी