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हम जहाँ रहते हैं ख़्वाबों का नगर है कोई | शाही शायरी
hum jahan rahte hain KHwabon ka nagar hai koi

ग़ज़ल

हम जहाँ रहते हैं ख़्वाबों का नगर है कोई

अकबर हैदरी

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हम जहाँ रहते हैं ख़्वाबों का नगर है कोई
इस ख़राबे में न दीवार न दर है कोई

जा बसा था जो किसी हिज्र के सहरा में कभी
ऐ हवाओ कहो इस दिल की ख़बर है कोई

सूरत-ए-मौज-ए-सबा लोग इधर से गुज़रे
ये तो अनजानी हवाओं की डगर है कोई

हिज्र-ए-दीदार भी महरूमी-ए-दीदार भी हिज्र
जो कभी ख़त्म न हो ऐसा सफ़र है कोई

मैं कि अंदर से पिघलता ही चला जाता हूँ
मेरे यख़-बस्ता बदन में भी शरर है कोई

ये फ़ज़ा रास नहीं दश्त-मिज़ाजों के लिए
इस समन-ज़ार में पत्थर है न सर है कोई

जिस्म और जाँ का ये आज़ार ये महशर 'अकबर'
किसी अंदेशा-ए-बातिन का असर है कोई