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हम जहाँ नग़्मा-ओ-आहंग लिए फिरते हैं | शाही शायरी
hum jahan naghma-o-ahang liye phirte hain

ग़ज़ल

हम जहाँ नग़्मा-ओ-आहंग लिए फिरते हैं

रज़ी अख़्तर शौक़

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हम जहाँ नग़्मा-ओ-आहंग लिए फिरते हैं
लोग हाथों में वहाँ संग लिए फिरते हैं

हम ही इस अहद का मे'यार-ए-तग़य्युर होंगे
हम कि हर दौर में सौ रंग लिए फिरते हैं

क्या हो शोरीदा-सरों की गुज़र औक़ात कि लोग
दस्त-ए-बे-फ़ैज़-ओ-दिल-ए-तंग लिए फिरते हैं

सब तिरा हुस्न तिरे हुस्न-ए-सही-क़द में नहीं
हम भी आँखों में अजब रंग लिए फिरते हैं

'शौक़' दुश्वार है अब मो'जिज़ा-ए-फ़न की नुमूद
लोग अशआ'र में फ़रहंग लिए फिरते हैं