हम इस दयार के इस ख़ाक-दाँ के थे ही नहीं
वहीं पे आ के बसे हैं जहाँ के थे ही नहीं
थे जिस का मरकज़ी किरदार एक उम्र तलक
पता चला कि उसी दास्ताँ के थे ही नहीं
सफ़र से लौट के हैरत हुई परिंदे को
ये ख़ार-ओ-ख़स तो मिरे आशियाँ के थे ही नहीं
हर एक रंग में देखा है उस को आँखों ने
ये रंग पहले कभी आसमाँ के थे ही नहीं
हमें बहार के मौसम में ले उड़ी है हवा
वो बर्ग-ए-ज़र्द हैं हम जो ख़िज़ाँ के थे ही नहीं
इसी लिए नहीं रक्खा हिसाब साँसों का
कि मसअले कभी सूद-ओ-ज़ियाँ के थे ही नहीं
तलाश करते हो क्यूँ 'शाद' गुज़रे लम्हों को
वो राह-रौ तो किसी कारवाँ के थे ही नहीं
ग़ज़ल
हम इस दयार के इस ख़ाक-दाँ के थे ही नहीं
ख़ुशबीर सिंह शाद