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हम हिज्र की काली रातों में जब बिस्तर-ए-ख़्वाब पे जाते हैं | शाही शायरी
hum hijr ki kali raaton mein jab bistar-e-KHwab pe jate hain

ग़ज़ल

हम हिज्र की काली रातों में जब बिस्तर-ए-ख़्वाब पे जाते हैं

मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी

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हम हिज्र की काली रातों में जब बिस्तर-ए-ख़्वाब पे जाते हैं
माज़ी के तमाम मसाइब इक इक कर के सामने आते हैं

फिर मुस्तक़बिल के भयानक चेहरे पर जब नज़रें पड़ती हैं
इस हैबतनाक तसव्वुर से हम डरते हैं घबराते हैं

ग़ैरों से वो मिलते रहते हैं ख़ुद जा जा कर तन्हाई में
मेरा क्या है ज़िक्र भला मिरे साए से भी शरमाते हैं

मुझ में और मेरे रक़ीबों में है फ़र्क़ बस इतना थोड़ा सा
उन को सूरत दिखलाते हैं मुझ को आँखें दिखलाते हैं

शायद इस कल से मुराद हुआ करती है क़यामत की दूरी
'ज़ौक़ी' से वो अपने जब भी कभी कल का वा'दा फ़रमाते हैं