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हम ही तन्हा न तिरी चश्म के बीमार हुए | शाही शायरी
hum hi tanha na teri chashm ke bimar hue

ग़ज़ल

हम ही तन्हा न तिरी चश्म के बीमार हुए

मीर मोहम्मदी बेदार

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हम ही तन्हा न तिरी चश्म के बीमार हुए
इस मरज़ में तो कई हम से गिरफ़्तार हुए

सीना-ए-ख़स्ता हमारे से है ग़िर्बाल को रश्क
नावक-ए-ग़म जिगर-ओ-दिल से ज़ि-बस पार हुए

बिकने मोती लगे बाज़ार में कौड़ी कौड़ी
याद में तेरी ज़ि-बस चश्म-ए-गुहर-बार हुए

रोज़-ए-अव्वल कि तुम आ मिस्र-ए-मोहब्बत के बीच
यूसुफ़-ए-अस्र हुए रौनक़-ए-बाज़ार हुए

नक़्द-ए-जान-ओ-दिल-ओ-दीं दे के लिया हम ने तुम्हें
सैकड़ों अहल-ए-हवस गरचे ख़रीदार हुए

घर में ले आए तुम्हें चाह से करने शादी
कि तुम इस ग़म-कदे में शम्-ए-शब-तार हुए

रुख़-ए-ताबाँ से तुम्हारे कि है ख़ुर्शीद-मिसाल
दर-ओ-दीवार सभी मतला-ए-अनवार हुए

ढूँढते तुम को पड़े फिरते थे हम शहर-ब-शहर
ख़्वार-ओ-रुसवा-ए-सर-ए-कूचा-ओ-बाज़ार हुए

लिल्लाहिल-हम्द कि मुद्दत में तुम ऐ नूर-ए-निगाह
बाइस-ए-रौशनी-ए-दीदा-ए-ख़ूँ-बार हुए

ख़ाना-ए-चश्म में रखते थे शब-ओ-रोज़ कि तुम
क़ुर्रत-उल-ऐन हुए राहत-ए-दीदार हुए

देख कर मेहर-ओ-वफ़ा ओ करम-ओ-लुत्फ़ को हम
जानते यूँ थे कि तुम यार-ए-वफ़ादार हुए

जिस में तुम होते ख़ुशी सो ही तो हम करते थे
पर नहीं जानते किस वास्ते बेज़ार हुए

अब हमें छोड़ के यूँ ज़ार-ओ-निज़ार-ओ-ग़मगीं
तुम कहीं और ही जा याँ से नुमूदार हुए

ये तो हरगिज़ ही न थी तुम से तवक़्क़ो हम को
कि सितमगार दिल-आज़ार जफ़ा-कार हुए

न वो इख़्लास-ओ-मोहब्बत है न वो मेहर-ओ-वफ़ा
शेवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा-ओ-सितम इज़हार हुए

या वो अल्ताफ़-ओ-करम था कि सदा रहते थे
ऐ गुल-अंदाम हमारे गए के हार हुए

इस में हैराँ हैं कि क्या ऐसी हुई है तक़्सीर
क़त्ल करने के तईं फिरते हो तयार हुए

तेग़-ए-ख़ूँ-रेज़-ब-कफ़ ख़ंजर-ए-बुर्रां ब-मियाँ
हर घड़ी सामने आ जाते हो खूँ-ख़्वार हुए

फिर तो क्या है सुनते हो उठो बिस्मिल्लाह
खींच कर तेग़ को आओ जो सितमगार हुए

वर्ना दिल खोल के लग जाओ गले से प्यारे
गो कि हम क़त्ल ही करने के सज़ा-वार हुए

उतनी ही बात के कहने में कि इक बोसा दो
आह ऐ शोख़ जो ऐसे ही गुनाहगार हुए

तौबा करते हैं क़सम खाते हैं सुनते हो तुम
फिर नहीं कहने के आगे को ख़बर-दार हुए

पूछता क्या है तू 'बेदार' हमारा अहवाल
दाम-ए-ख़ूबाँ में फिर अब आए गिरफ़्तार हुए