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हम ही ने सीख लिया रहगुज़र को घर करना | शाही शायरी
hum hi ne sikh liya rahguzar ko ghar karna

ग़ज़ल

हम ही ने सीख लिया रहगुज़र को घर करना

जाफ़र अब्बास

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हम ही ने सीख लिया रहगुज़र को घर करना
वगर्ना उस की तो आदत है दर-ब-दर करना

न अपनी राह थी कोई न कोई मंज़िल थी
तभी तो चाहा था तुझ को ही हम-सफ़र करना

थीं गरचे गिर्द मिरे ख़ामुशी की दीवारें
तुम्हारे वास्ते मुश्किल नहीं था दर करना

तुम्हारी तर्क-ओ-तलब जिस्म-ओ-रूह की उलझन
हमें भी आ न सका ख़ुद को मो'तबर करना

तिरी निगाह-ए-तग़ाफ़ुल-शिआ'र के सदक़े
हमें भी आ ही गया है गुज़र-बसर करना

जो अब के दर्द उठा दिल में आख़िरी होगा
जो हो सके तो उसे मेरा चारागर करना

मैं चूर चूर हूँ देखो बिखर न जाऊँ कहीं
मिरी दुआओं को इतना न बे-असर करना

बहार आई है इस बार कुछ लिखें हम भी
सिखाओ हम को भी इस दर्द को शजर करना