हम ही करते नहीं ज़ुल्फ़ों को तिरी हार पसंद
शैख़ साहिब को भी आता है ये ज़ुन्नार पसंद
सब्ज़ा-ए-ख़त रहे उस चेहरा-ए-गुल-रंग से दूर
ज़ख़्म-ए-दिल को नहीं ये मरहम-ए-ज़ंगार पसंद
जाऊँ काबे को मैं किस तरह से ऐ वाइज़-ए-शहर
आ गया मुझ को तो अब ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार पसंद
गो कि सौ रंग गुलिस्तान में दिखलाए बहार
न करें गुल को तिरे तालिब-ए-दीदार पसंद
जो कोई दर्द से टुक चाशनी रखता होगा
उसी को आएँगे 'जोशिश' मिरे अशआर पसंद
ग़ज़ल
हम ही करते नहीं ज़ुल्फ़ों को तिरी हार पसंद
जोशिश अज़ीमाबादी