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हम हैं और राह-ए-कू-ए-बदनामी | शाही शायरी
hum hain aur rah-e-ku-e-badnami

ग़ज़ल

हम हैं और राह-ए-कू-ए-बदनामी

सलीम अहमद

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हम हैं और राह-ए-कू-ए-बदनामी
मर्हबा ऐ हवा-ए-ख़ुश-कामी

उस का दिल अपने हक़ में पारा-ए-संग
ख़त्म है जिस पे नाज़ुक-अंदामी

हम ने शिकवा कभी किया न करें
शिकवा है ए'तिराफ़ नाकामी

कलमा-ए-हक़ कहें तो हम जानें
वर्ना क्या रुस्तमी ओ बहरमी

पहले मख़्तून अक़्ल को कर लें
ज़िंदगी फिर बनाएँ इस्लामी

सर मुंडाते हैं हम से आ के ख़याल
अपना पेशा हुआ है हज्जामी