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हम फ़क़ीरों का सुने गर ज़िक्र-ए-अर्रा फ़ाख़्ता | शाही शायरी
hum faqiron ka sune gar zikr-e-arra faKHta

ग़ज़ल

हम फ़क़ीरों का सुने गर ज़िक्र-ए-अर्रा फ़ाख़्ता

मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल

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हम फ़क़ीरों का सुने गर ज़िक्र-ए-अर्रा फ़ाख़्ता
अपनी कू-कू पर करे हरगिज़ न ग़र्रा फ़ाख़्ता

जल के ख़ाकिस्तर अभी हो जाए तू इक आन में
गर तिरे दिल में हो सोज़-ए-इश्क़ ज़र्रा फ़ाख़्ता

चश्म-ए-तर से अपनी तू सैराब रख शमशाद को
याँ दरख़्त-ए-ख़ुश्क पर चलता है अर्रा फ़ाख़्ता

जामा-ए-ख़ाकिस्तरी से तेरे ये साबित हुआ
अपनी दरवेशी का है तुझ भी ग़र्रा फ़ाख़्ता

जिस पर उस माह-ए-तमामी-पोश का साया पड़े
बाग़ में वो सर्व हो रश्क-ए-महर्रा फ़ाख़्ता

इशक़-ए-मिज़्गाँ ने भी तो खींचा है दार-ए-सर्व पर
याद-ए-अबरू में अगर है ज़ेर-ए-अर्रा फ़ाख़्ता

मुर्ग़-ए-बुसतानी का उस के सामने दम बंद है
नग़्मा-संजी में न कर 'ग़ाफ़िल' से ग़र्रा फ़ाख़्ता