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हम दश्त से हर शाम यही सोच के घर आए | शाही शायरी
hum dasht se har sham yahi soch ke ghar aae

ग़ज़ल

हम दश्त से हर शाम यही सोच के घर आए

असग़र गोरखपुरी

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हम दश्त से हर शाम यही सोच के घर आए
शायद कि किसी शब तिरे आने की ख़बर आए

मालूम किसे शहर-ए-तिलिस्मात का रस्ता
कुछ दूर मिरे साथ तो महताब-ए-सफ़र आए

इस फूल से चेहरे की तलब राहत-ए-जाँ है
फेंके कोई पत्थर भी तो एहसाँ मिरे सर आए

ता फिर न मुझे तीरा-नसीबी का गिला हो
ये सुब्ह का सूरज मिरी आँखों में उतर आए

अब आगे अलम और कोई हाथों से ले ले
हम शब के मुसाफ़िर थे चले ता-ब-सहर आए