हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
मरने के बड़े जतन किए हैं
मख़्फ़ी तुझ से भी हैं ग़म-ए-यार
कुछ वार जो दिल ने सह लिए हैं
दिल से भी छुपा के हम ने रक्खे
कुछ चाक जो उम्र भर सिए हैं
कुछ ख़ून-ए-वफ़ा से कुछ हिना से
क्या रंग बहार ने लिए हैं
अफ़्सोस हमारी सख़्त-जानी
अहबाब ने भी गिले किए हैं
गुलशन में अजब हवा चली है
फूलों ने होंट सी लिए हैं
दिल-बाख़्तगी ओ शेर-ख़्वानी
दो काम तो उम्र भर किए हैं
कहते थे तुझी को जान अपनी
और तेरे बग़ैर भी जिए हैं
ग़ज़ल
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
सय्यद आबिद अली आबिद