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हम बे-घरों के दिल में जगाती है डर गली | शाही शायरी
hum be-gharon ke dil mein jagati hai Dar gali

ग़ज़ल

हम बे-घरों के दिल में जगाती है डर गली

ज़िशान इलाही

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हम बे-घरों के दिल में जगाती है डर गली
सोती है आधी रात को जब बे-ख़बर गली

मुझ को तो जान-बूझ के भटका दिया गया
सरकार का मकान कहाँ और किधर गली

कुछ साल क़ब्ल मेरे भी हिस्से में आई थी
इक दिल-नशीन शाम और इक मुंतज़र गली

चल तो पड़ा हूँ शौक़-ए-मकाँ में तिरे मगर
आगे से बंद ये भी मिलेगी अगर गली

सीने से तेरी याद लगा कर मैं सो गया
हर-चंद शोर करती रही रात-भर गली

इक अर्से बा'द उधर से जो मेरा गुज़र हुआ
तुम बिन सभी उदास मिले ख़ास कर गली

अंजान शहर में था अकेला निकल पड़ा
'ज़ीशान' तुझ को ज़ेहन में रखनी थी हर गली