हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे
हर राह में रुकते थे हर दर पे ठहरते थे
वीराना कोई हम से देखा नहीं जाता था
दीवार उठाते थे दरवाज़े बदलते थे
आवारा से हम लड़के रातों को फिरा करते
हम सर्व चराग़ाँ थे चौराहों पे जलते थे
ये ख़ाक-ए-जहाँ उन के क़दमों से लिपट जाती
जो राह के काँटों को चुनते हुए चलते थे
इक शाम सर-ए-महफ़िल हम ने भी उसे देखा
ये सच है उन आँखों में मय-ख़ाने मचलते थे

ग़ज़ल
हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे
ज़ुबैर रिज़वी