हम अपने बख़्त-ए-सियह के असर में रहते हैं
वो रात है कि सितारे नज़र में रहते हैं
तमाशा-गाह-ए-तुलू-ओ-ग़ुरूब से हट कर
हम इक सवाद-ए-शब-ए-बे-सहर में रहते हैं
न थी ख़ुदा की ज़मीं तंग जिन के क़दमों पर
फ़ुग़ाँ कि क़ैद वो दीवार-ओ-दर में रहते हैं
वो आगही के समुंदर कहाँ हैं जिन के लिए
तमाम-उम्र ये प्यासे सफ़र में रहते हैं
हवा-ए-कूचा-ए-महबूब से कहे तो कौन
कि हम भी आरज़ू-ए-नामा-बर में रहते हैं
वो शहरयार-ए-सुख़न नाम जिन का 'सहबा' है
फ़क़ीर बन के तिरी रहगुज़र में रहते हैं
ग़ज़ल
हम अपने बख़्त-ए-सियह के असर में रहते हैं
सहबा अख़्तर