हम ऐसे कब थे कि ख़ुद बदौलत यहाँ भी करते क़दम नवाज़िश
मगर ये इक इक क़दम पर ऐ जाँ फ़क़त इनायत करम नवाज़िश
कहाँ ये घर और कहाँ ये दौलत जो आप आते उधर को ऐ जाँ
जो आन निकले हो बंदा-परवर तो कीजे अब कोई दम नवाज़िश
लगा के ठोकर हमारे सर पर बला तुम्हारी करे तअस्सुफ़
कि हम तो समझे हैं इस को दिल से तुम्हारे सर की क़सम नवाज़िश
जवाब माँगा जो नामा-बर से तो उस ने खा कर क़सम कहा यूँ
ज़बाँ क़लम हो जो झूट बोले कि वाँ नहीं यक क़लम नवाज़िश
उठावें नाज़ाँ के हम न क्यूँकर 'नज़ीर' दिल से कि जिन के होवें
जफ़ा तलत्तुफ़ इ'ताब शफ़क़त ग़ज़ब तवज्जोह हतम नवाज़िश
ग़ज़ल
हम ऐसे कब थे कि ख़ुद बदौलत यहाँ भी करते क़दम नवाज़िश
नज़ीर अकबराबादी