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हम अहल-ए-ज़र्फ़ हैं यूँ ही ख़फ़ा नहीं होते | शाही शायरी
hum ahl-e-zarf hain yun hi KHafa nahin hote

ग़ज़ल

हम अहल-ए-ज़र्फ़ हैं यूँ ही ख़फ़ा नहीं होते

कविता किरन

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हम अहल-ए-ज़र्फ़ हैं यूँ ही ख़फ़ा नहीं होते
वफ़ा-शिआर कभी बेवफ़ा नहीं होते

कुछ ऐसे आँसू भी रहते हैं मेरी पलकों पर
जुदा तो होते हैं फिर भी जुदा नहीं होते

जो ज़ख़्म तुम ने नवाज़े हैं बे-सबब हम को
किसी भी दर्द का वो मसअला नहीं होते

कहा ये किस ने कहाँ से ये सुन के आए हो
जो बे-सहारा हैं वो आसरा नहीं होते

हर एक गाम पे जो लड़खड़ाए रहते हैं
ग़ुबार-ए-राह में वो रास्ता नहीं होते

चराग़ तो हैं मगर इतने धुँदले धुँदले क्यूँ
'किरन' तुम्हारे तो ये नक़्श-ए-पा नहीं होते