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हम अहल-ए-नज़ारा शाम-ओ-सहर आँखों को फ़िदया करते हैं | शाही शायरी
hum ahl-e-nazara sham-o-sahar aankhon ko fidya karte hain

ग़ज़ल

हम अहल-ए-नज़ारा शाम-ओ-सहर आँखों को फ़िदया करते हैं

अफ़ीफ़ सिराज

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हम अहल-ए-नज़ारा शाम-ओ-सहर आँखों को फ़िदया करते हैं
हम जल्वा जल्वा कहते हैं वो पर्दा पर्दा करते हैं

ऐ नासेह तू क्या कहता है वो आजिज़ है मय-नोशी से
ले तोड़ रहे हैं साग़र को हम आज ही तौबा करते हैं

सरकार का है बाज़ार भी क्या हर जिंस ख़रीदी जाती है
बेच आए सब ईमान धरम हम सर का सौदा करते हैं

जब हम ने ज़बाँ खोली अपनी मस्लूब हुए मक़्तूल हुए
ये देखिए हम ख़ामोश हुए सब मेरा चर्चा करते हैं

ये कुंज-ए-क़फ़स ये आह-ओ-बुका ये रंज-ओ-अलम हैं मेरे लिए
क्या बात हुई मिल कर हम से क्यूँकर वो गिर्या गिरते हैं

वो दिल अपना बहलाते हैं इस शाम-ओ-सहर के खेल में हम
हर सुब्ह दबाते हैं जज़्बे हर शाम वो फ़ित्ना करते हैं

जब बात वफ़ा की आती है जब मंज़र रंग बदलता है
और बात बिगड़ने लगती है वो फिर इक वा'दा करते हैं