हम आज अपना मुक़द्दर बदल के देखते हैं
तुम्हारे साथ भी कुछ दूर चल के देखते हैं
उधर चराग़ बुझाने को है हवा बेताब
इधर ये ज़िद कि हवाओं में जल के देखते हैं
चलो फिर आज ज़मीनों में जज़्ब हो जाएँ
छलक के आँख से बाहर निकल के देखते हैं
ये इश्क़ कोई बला है जुनून है क्या है
ये कैसी आग है पत्थर पिघल के देखते हैं
अजीब प्यास है दरिया से बुझ नहीं पाई
जो तुम कहो तो समुंदर निगल के देखते हैं
वो गर निगाह मिला ले तो मो'जिज़ा कर दे
इसी लिए तो उधर हम सँभल के देखते हैं
बदल के ख़ुद ही हमीं रह गए ज़माने में
चले थे घर से कि दुनिया बदल के देखते हैं
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ग़ज़ल
हम आज अपना मुक़द्दर बदल के देखते हैं
नफ़स अम्बालवी