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हम आगही को रोते हैं और आगही हमें | शाही शायरी
hum aagahi ko rote hain aur aagahi hamein

ग़ज़ल

हम आगही को रोते हैं और आगही हमें

जावेद कमाल रामपुरी

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हम आगही को रोते हैं और आगही हमें
वारफ़्तगी-ए-शौक़ कहाँ ले चली हमें

लेती गई थी हम से सबा ज़ौक़-ए-दिलबरी
देती गई थी लज़्ज़त-ए-बे-रह-रवी हमें

उन के ग़ुरूर-ओ-ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा की ख़ैर
रास आ चली थी रस्म-ओ-रह-ए-आशिक़ी हमें

हम ज़र्रा ज़र्रा ढूँड चुके मौजा-ए-सराब
और क़तरा क़तरा ढूँड चुकी तिश्नगी हमें

आई थी चंद गाम उसी बेवफ़ा के साथ
फिर उम्र भर को भूल गई ज़िंदगी हमें