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हल्क़ा हल्क़ा घर बना लख़्त-ए-दिल-ए-बेताब का | शाही शायरी
halqa halqa ghar bana laKHt-e-dil-e-betab ka

ग़ज़ल

हल्क़ा हल्क़ा घर बना लख़्त-ए-दिल-ए-बेताब का

मुनीर शिकोहाबादी

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हल्क़ा हल्क़ा घर बना लख़्त-ए-दिल-ए-बेताब का
ज़ुल्फ़-ए-जानाँ में है आलम सुब्हा-ए-सीमाब का

सोने में नज़्ज़ारा कर लूँ रू-ए-आलम-ताब का
ख़ौफ़ क्या दुज़्द-ए-निगह को है शब-ए-महताब का

खेल भी बेताब था तिफ़्ली में उस बेताब का
पर उड़ाता था हवा पर माही-ए-बे-आब का

रुक नहीं सकता है दरिया दीदा-ए-पुर-आब का
पाट है रूमाल मेरा दामन-ए-सैलाब का

ख़्वाब में यारान-ए-रफ़्ता से मुलाक़ातें हुईं
हम ने समझा ख़िज़्र ग़फ़लत को रह-ए-अहबाब का

कहते हैं सब देख कर बेताब मेरा उज़्व उज़्व
आदमी अब तक नहीं देखा कहीं सीमाब का

नींद की सूरत नहीं देखा ब-जुज़ दाग़-ए-जिगर
पर्दा मेरी आँख में शायद कि है कम-ख़्वाब का

लग गई आग आतिश-ए-रुख़ से नक़ाब-ए-यार में
देख लो जलता है कोना चादर-ए-महताब का

मजलिस-ए-बे-शम्अ' वो हैं शम-ए-बे-मजलिस हूँ मैं
ग़म मिरा अहबाब को है मुझ को ग़म अहबाब का

हिज्र-ए-जानाँ के अलम में हम फ़रिश्ते बन गए
ध्यान मुद्दत से छुटा आब-ओ-तआ'म-ओ-ख़्वाब का

अहल-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा से सर-बुलन्दों की है ज़ेब
ख़ुशनुमा ज़ेर-ए-मनार ओ क़ुर्ब है मेहराब का

झुक के हम ने बोसा-ए-अबरू की जब माँगी दुआ
हल्क़ा-ए-आग़ोश पर आलम हुआ मेहराब का

इस क़दर फ़रियाद महशर-ख़ेज़ ऐ बुलबुल न कर
देखना तख़्ता न उल्टे गुलशन-ए-शादाब का

मोहर-ए-दस्त-आवेज़-ए-ग़म है हर बशर का दाग़-ए-ग़म
दिल है महज़र सोहबत-ए-गुम-कर्दा-ए-अहबाब का

बे-तकल्लुफ़ आ गया वो मह दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न
रह गया पास-ए-अदब से क़ाफ़िया आदाब का

परवरिश तक़दीर करती है मुझे बहर-ए-क़ज़ा
ज़ब्ह को पर्वर्दा करना काम है क़स्साब का

नश्शा-ए-जुर्रत ज़ियादा हो गया ऐ मय-कशो
साग़र-ए-मय बन गया कासा सर-ए-सोहराब का

मू-ए-आतिश-दीद साँ बल खाए वो मू-ए-कमर
मैं जो लिक्खूँ गर्म मज़मूँ उस तिलाई डाब का

हो गया हूँ मैं नक़ाब-ए-रू-ए-रौशन पर फ़क़ीर
चाहिए तह-बंद मुझ को चादर-ए-महताब का

ख़ाल-ओ-ख़त से ऐब उस के रू-ए-अक़्दस को नहीं
हुस्न है मुसहफ़ में होना नुक़्ता-ए-ए'राब का

दोस्त दुश्मन से ज़ियादा तेज़ रखते हैं छुरी
बरहमन भी पेशा अब करने लगे क़स्साब का

होंट पर अंगुश्त-ए-रंगीं रख के वो कहने लगे
शाख़-ए-मर्जां ने समर पैदा किया उन्नाब का

लाग़री के साथ बेताबी यही ऐ बहर-ए-हुस्न
ख़ार है ये जिस्म-ए-लाग़र माही-ए-बे-आब का

तेरी फ़ुर्क़त में जो आए भूल कर आँखों में नींद
मर्दुमान-ए-चश्म ने फिर मुँह न देखा ख़्वाब का

मेरे मुर्ग़-ए-दिल की बेताबी उड़ाई किस तरह
हौसला ऐसा नहीं है ताइर-ए-सीमाब का

ख़िदमत-ए-अक़्दस में चल कर ये ग़ज़ल पढ़ ऐ 'मुनीर'
शोहरा सब अहल-ए-सुख़न में है तिरे नव्वाब का