हलाक-ए-तेग़-ए-जफ़ा या शहीद-ए-नाज़ करे
तिरा करम है जिसे जैसे सरफ़राज़ करे
हर एक ज़र्रा है आलम का गोश-बर-आवाज़
तो फिर कहाँ पे कोई गुफ़्तुगू-ए-राज़ करे
तजल्लियाँ जिसे घेरे हों तेरे जल्वे की
वो दैर ओ काबा में क्या ख़ाक इम्तियाज़ करे
मुहाल तर्क-ए-ख़याल-ए-नजात है लेकिन
वो बे-नियाज़ जिसे चाहे बे-नियाज़ करे
मिरे करीम जो बे-माँगे तुझ से पाता हो
वो जा के क्यूँ कहीं दस्त-ए-तलब दराज़ करे
ये हुस्न-ओ-इश्क़ का है इत्तिहाद-ए-यक-रंगी
वही है मर्ज़ी-ए-महमूद जो अयाज़ करे
बनाए ज़िंदा-ए-जावेद या रखे 'बेदम'
मिरे सर आँखों पे जो कुछ निगाह-ए-नाज़ करे
ग़ज़ल
हलाक-ए-तेग़-ए-जफ़ा या शहीद-ए-नाज़ करे
बेदम शाह वारसी