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हलाक-ए-तेग़-ए-जफ़ा या शहीद-ए-नाज़ करे | शाही शायरी
halak-e-tegh-e-jafa ya shahid-e-naz kare

ग़ज़ल

हलाक-ए-तेग़-ए-जफ़ा या शहीद-ए-नाज़ करे

बेदम शाह वारसी

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हलाक-ए-तेग़-ए-जफ़ा या शहीद-ए-नाज़ करे
तिरा करम है जिसे जैसे सरफ़राज़ करे

हर एक ज़र्रा है आलम का गोश-बर-आवाज़
तो फिर कहाँ पे कोई गुफ़्तुगू-ए-राज़ करे

तजल्लियाँ जिसे घेरे हों तेरे जल्वे की
वो दैर ओ काबा में क्या ख़ाक इम्तियाज़ करे

मुहाल तर्क-ए-ख़याल-ए-नजात है लेकिन
वो बे-नियाज़ जिसे चाहे बे-नियाज़ करे

मिरे करीम जो बे-माँगे तुझ से पाता हो
वो जा के क्यूँ कहीं दस्त-ए-तलब दराज़ करे

ये हुस्न-ओ-इश्क़ का है इत्तिहाद-ए-यक-रंगी
वही है मर्ज़ी-ए-महमूद जो अयाज़ करे

बनाए ज़िंदा-ए-जावेद या रखे 'बेदम'
मिरे सर आँखों पे जो कुछ निगाह-ए-नाज़ करे