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हलाक-ए-कश्मकश-ए-राएगाँ बहुत से हैं | शाही शायरी
halak-e-kashmakash-e-raegan bahut se hain

ग़ज़ल

हलाक-ए-कश्मकश-ए-राएगाँ बहुत से हैं

रज़ी अख़्तर शौक़

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हलाक-ए-कश्मकश-ए-राएगाँ बहुत से हैं
कि ज़िंदगी है तो कार-ए-ज़ियाँ बहुत से हैं

मैं इस हवा में बहुत देर रौशनी दूँगा
अभी दिए सर-ए-मेहराब-ए-जाँ बहुत से हैं

उसे भी अपने सँवरने का कब ख़याल आया
जब अहल-ए-इश्क़ को कार-ए-जहाँ बहुत से हैं

इस एक बात पे हैराँ है वक़्त का मुंसिफ़
कि इस में कौन सा सच है बयाँ बहुत से हैं

अजब ये ख़ित्ता-ए-ज़िंदा-दिलां हुआ आबाद
कि घर कहीं भी नहीं और मकाँ बहुत से हैं