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हैरत-ज़दा मैं उन के मुक़ाबिल में रह गया | शाही शायरी
hairat-zada main un ke muqabil mein rah gaya

ग़ज़ल

हैरत-ज़दा मैं उन के मुक़ाबिल में रह गया

तिलोकचंद महरूम

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हैरत-ज़दा मैं उन के मुक़ाबिल में रह गया
जो दिल का मुद्दआ' था मिरे दिल में रह गया

ख़ंजर का वार करते ही क़ातिल रवाँ हुआ
अरमान-ए-दीद दीदा-ए-बिस्मिल में रह गया

जितनी सफ़ा थी सब रुख़-ए-जानाँ में आ गई
जो दाग़ रह गया मह-ए-कामिल में रह गया

ऐ मेहरबान दश्त-ए-मोहब्बत चले चलो
अपना तो पा-ए-शौक़ सलासिल में रह गया

वहशत-फ़ज़ा बहुत थी हवा दश्त-ए-क़ैस की
पर्दा किसी का पर्दा-ए-महमिल में रह गया

'महरूम' दिल के हाथ से जाँ थी अज़ाब में
अच्छा हुआ कि यार की महफ़िल में रह गया