हैरत-अंगेज़ हुआ चाहती है
आह ज़रख़ेज़ हुआ चाहती है
अपनी थोड़ी सी धनक दे भी दे
रात रंग-रेज़ हुआ चाहती है
आबजू देख तिरे होते हुए
आग आमेज़ हुआ चाहती है
बस पियाला ही तलबगार नहीं
मय भी लबरेज़ हुआ चाहती है
रौशनी तुझ से भला क्या परहेज़
तू ही परहेज़ हुआ चाहती है
ग़ज़ल
हैरत-अंगेज़ हुआ चाहती है
नवीन सी. चतुर्वेदी