हैरान बहुत ताबिश-ए-हुस्न-दीगराँ थी
तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ में कहाँ थी
फैला किए दरिया-ए-मोहब्बत के किनारे
उन झील सी आँखों में कोई चीज़ निहाँ थी
हर जश्न-ए-तरब-नाक पे मज्लिस का असर था
हर उड़ते हुए बोसे में गर्द-ए-ग़म-ए-जाँ थी
या अर्ज़-ए-यक़ीं पर थी बिछी बर्फ़ की चादर
या घेरे हुए फिर मुझे दुनिया-ए-गुमाँ थी
हम बारगह-ए-वस्ल के ठुकराए हुए लोग
इक सोहबत-ए-अय्याम थी सो नज़र-ए-फ़ुग़ाँ थी
हम ज़ब्त के मारों का अजब हाल था 'साक़िब'
जो बात छुपानी थी वो चेहरों से अयाँ थी
ग़ज़ल
हैरान बहुत ताबिश-ए-हुस्न-दीगराँ थी
अमीर हम्ज़ा साक़िब