हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
अल्लाह-रे ज़ालिम की मज़लूम-नुमा आँखें
आफ़त में फंसाएँगी दीवाना बनाएँगी
वो ग़ालिया-सा ज़ुल्फ़ें वो होश-रुबा आँखें
क्या जानिए क्या करता क्या देखता क्या कहता
ज़ाहिद को भी मेरी सी देता जो ख़ुदा आँखें
रहम उन को न आया था तो शर्म ही आ जाती
बे-दाद के शिकवे पर झुकतीं तो ज़रा आँखें
तुम जान को खो बैठो या आँखों को रो बैठो
'बेख़ुद' न मिलाएँगे वो तुम से ज़रा आँखें
ग़ज़ल
हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
बेखुद बदायुनी