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हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें | शाही शायरी
hain wasl mein shoKHi se paband-e-haya aankhen

ग़ज़ल

हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें

बेखुद बदायुनी

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हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
अल्लाह-रे ज़ालिम की मज़लूम-नुमा आँखें

आफ़त में फंसाएँगी दीवाना बनाएँगी
वो ग़ालिया-सा ज़ुल्फ़ें वो होश-रुबा आँखें

क्या जानिए क्या करता क्या देखता क्या कहता
ज़ाहिद को भी मेरी सी देता जो ख़ुदा आँखें

रहम उन को न आया था तो शर्म ही आ जाती
बे-दाद के शिकवे पर झुकतीं तो ज़रा आँखें

तुम जान को खो बैठो या आँखों को रो बैठो
'बेख़ुद' न मिलाएँगे वो तुम से ज़रा आँखें